अध्याय एक - भाग 6 (अंतिम)
कोई भी वैज्ञानिक
थ्योरी हमेशा इन मायनों में तात्कालिक होती है कि वह केवल एक अवधारणा है: उसे सही
सिद्ध नहीं किया जा सकता. इसे इस तरह से समझें कि थ्योरी के बारे में किए हुए
प्रयोग और अवलोकन चाहे जितनी बार अनुकूल परिणाम दें, आप पक्के तौर पर नहीं बता
सकते कि अगला प्रयोग निश्चित रूप से अनुकूल परिणाम देगा. वहीं दूसरी ओर, आप किसी
भी थ्योरी के पूर्वानुमानों के विपरीत सिर्फ एक अवलोकन कर लें तो वह थ्योरी असत्य
प्रमाणित हो जाती है, खंडित हो जाती है. जैसा विज्ञान के दार्शनिक कार्ल पॉपर ने
ज़ोर दे कर कहा है, एक अच्छी थ्योरी का लक्षण यही है कि वह ऐसे कई पूर्वानुमान
देती है जिनका खंडन सिद्धांततः अवलोकनों के द्वारा किया जा सकता है. जब भी नए
प्रयोग उस थ्योरी के पूर्वानुमानों के साथ मेल खाते हैं, तब वह थ्योरी बची रहती
है, उसमें हमारा विश्वास और अधिक बढ़ जाता है; लेकिन एक भी ग़लत पूर्वानुमान होने
पर हमें उस थ्योरी को या तो छोड़ देना पड़ता है या फिर उसमें बदलाव लाने होते हैं.
कम-से-कम होना तो यही चाहिए, लेकिन अवलोकनकर्ता की समझदारी पर सवाल तो हमेशा उठाए
जा सकते हैं.
व्यावहारिक जगत में
होता यही है कि कोई भी नई थ्योरी दरअसल किसी पुरानी थ्योरी को ही आगे बढ़ाती है.
उदाहरण के लिए, बुध ग्रह के बहुत सटीक अवलोकनों के परिणामों को देखने से पता चला
था कि इसकी वास्तविक गति और न्यूटन की गुरुत्वाकर्षण की थ्योरी के पूर्वानुमानों
में सूक्ष्म अंतर है. आइन्सटाइन की सामान्य सापेक्षतावाद की थ्योरी ने न्यूटन की
थ्योरी के मुकाबले थोड़ी अलग गति का पूर्वानुमान लगाया था. इसीलिए यह तथ्य, कि
आइन्सटाइन की थ्योरी के पूर्वानुमान वास्तविक अवलोकनों से मेल खाते थे और न्यूटन
की थ्योरी के नहीं, उस थ्योरी को सर्वमान्यता दिलवाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण था.
हालांकि हम अब भी न्यूटन की थ्योरी का धड़ल्ले से उपयोग करते हैं क्योंकि उसके
पूर्वानुमानों और सामान्य सापेक्षतावाद के पूर्वानुमानों में अंतर अति सूक्ष्म है
और हमारे रोज़मर्रा के कामों के लिए इतना सूक्ष्म अंतर मायने नहीं रखता है. (साथ
ही न्यूटन की थ्योरी आइन्सटाइन की थ्योरी के मुकाबले समझने और उपयोग करने के लिए
ज्यादा सरल भी है ही!)
विज्ञान का एक
अंतिम लक्ष्य यह भी है कि सारे ब्रह्मांड का वर्णन करने वाली कोई एक ही थ्योरी
बनाई जाए. लेकिन वैज्ञानिक इस लक्ष्य को पाने के लिए जो रास्ता अपनाते हैं, वह है
समस्या को दो भागों में बांटना. पहला हिस्सा तो वह नियम हैं जो हमें बताते हैं कि
समय के साथ ब्रह्मांड किस तरह बदलता है. (यदि हमें पता है कि किसी विशेष क्षण पर
ब्रह्मांड की स्थिति क्या थी, तो ये नियम हमें बता सकते हैं कि भविष्य में किसी
विशेष क्षण पर ब्रह्मांड की स्थिति क्या होगी.) दूसरा हिस्सा है वह प्रश्न जिसका
संबंध ब्रह्मांड की प्रारंभिक अवस्था से है. कुछ लोगों को लगता है कि विज्ञान को
सिर्फ पहले हिस्से से ही मतलब होना चाहिए; उन्हें लगता है कि ब्रह्मांड की
प्रारंभिक अवस्था को आध्यात्म और धर्म के लिए छोड़ देना चाहिए. उनका कहना है कि
चूंकि ईश्वर सर्वशक्तिमान है, तो उसने अपनी इच्छा के अनुसार ब्रह्मांड को किसी भी
अवस्था में शुरू कर दिया होगा. ऐसा होना संभव तो है, लेकिन यदि ऐसा हुआ होता, तो
ईश्वर ने ब्रह्मांड का (शुरू होने के बाद का) विकास भी मनमाने तरीके से किया होता.
लेकिन अवलोकनों से लगता तो ऐसा हे कि उन्होंने ब्रह्मांड का विकास नियमित रूप से, कुछ
नियमों के दायरे में ही किया है. इसलिए ऐसा मानना तर्कसंगत है कि ब्रह्मांड की
प्रारंभिक अवस्था भी किन्ही नियमों के आधीन ही रही होगी.
लेकिन बात यह है कि
सारे ब्रह्मांड को एक ही थ्योरी में बांधना बहुत ही मुश्किल काम है. इसके बजाय, हम
इस समस्या को कई टुकड़ों में बांटते हैं और बहुत-सी आंशिक थ्योरी बनाते हैं.
प्रत्येक आंशिक थ्योरी एक मर्यादित संख्या में अवलोकनों का वर्णन करती है और
पूर्वानुमान लगाती है, साथ ही अन्य परिमाणों (मापों) को हिसाब में नहीं लेती या
फिर उन्हें सरल अंकों के समुच्चय के रूप में दर्शाती हैं. ऐसा हो सकता है कि यह
तरीका पूरी तरह से ग़लत हो. यदि ब्रह्मांड की हर चीज़ हर दूसरी चीज़ से मूलभूत रूप
से किसी तरह जुड़ी हुई हो, तो हो सकता है कि इस तरह समस्या के आंशिक रूप की थ्योरी
कभी भी ठीक समाधान नहीं दे पाए. जो भी हो, इसी तरीके को अपना कर हमने पहले भी काफी
सफलताएं पाई हैं. इसका एक शानदार उदाहरण फिर एक बार न्यूटन की गुरुत्वाकर्षण की
थ्योरी है, जो यह बताती है कि दो पिंडों के बीच का गुरुत्वाकर्षण उन पिंडों से
जुड़ी सिर्फ एक ही संख्या (उनके द्रव्यमान यानि मास) पर निर्भर करता है लेकिन इस
बात से उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये पिंड किस वस्तु के बने हुए हैं. इसीलिए
हमें सूर्य और ग्रहों की गतियों की गणना करने के लिए इस बात को जानना ज़रूरी नहीं
है कि ये आकाशीय पिंड किस चीज़ से और किस तरह बने हैं.
आज वैज्ञानिक
ब्रह्मांड का वर्णन कुल दो आंशिक थ्योरी के आधार पर करते हैं – सामान्य सापेक्षतावाद
का सिद्धांत और क्वांटम मैकेनिक्स यानि अतिसूक्ष्म यांत्रिकी. ये दोनों पिछली
शताब्दी के पूर्वार्ध की मानव-ज्ञान की सबसे शानदार उपलब्धियां हैं. सामान्य
सापेक्षतावाद का सिद्धांत गुरुत्वाकर्षण बल का वर्णन करता है और साथ ही ब्रह्मांड
के विशद् स्वरूप वर्णन भी – सिर्फ कुछ मील बड़ी संरचनाओं से ले कर हज़ारों अरब मील
बड़ी (1 के बाद 24 शून्य जितनी बड़ी संख्या) संरचनाओं तक. दूसरी ओर अतिसूक्ष्म
यांत्रिकी बहुत ही छोटे पैमानों की बात करती है, जैसे एक इंच के दस लाखवें भाग का
दस लाखवां भाग. दुर्भाग्य से, हमें पता है कि ये दोनों थ्योरी आपस में सुसंगत या
मेल कराने योग्य नहीं है – ये दोनों हमेशा, हर परिस्थिति में एक साथ सही नहीं हो
सकतीं. आज भौतिक शास्त्र का, और इस पुस्तक का भी, एक बड़ा उद्देश्य यह है कि एक
ऐसी थ्योरी खोजी जाए जो इन दोनों का मेल करवा दे – गुरुत्वाकर्षण की अतिसूक्ष्म या
क्वांटम थ्योरी. आज हमें यह थ्योरी मिली नहीं है, और हो सकता है कि आने वाले काफी
समय तक मिले भी नहीं, लेकिन हम ऐसे कई लक्षणों को जानते हैं जो इस थ्योरी में होने
चाहिएं. आगे आने वाले अध्यायों में हम देखेंगे कि गुरुत्वाकर्षण की अतिसूक्ष्म
थ्योरी को जो पूर्वानुमान लगाने चाहिएं उनके बारे में आज भी हम थोड़ा-बहुत जानते
हैं.
तो, यदि आप मानते
हैं कि ब्रह्मांड यूं ही नहीं चलता, बल्कि कुछ नियमों के तहत चलता है, तो अंततः
आपको सभी आंशिक थ्योरी को मिला कर एक ऐसी संपूर्ण थ्योरी बनानी होगी जो ब्रह्मांड
की हर बात का वर्णन कर सके. लेकिन इस तरह की संपूर्ण एकीकृत थ्योरी की खोज में एक
बड़ा विरोधाभास है. ऊपर दिये हुए वैज्ञानिक थ्योरी के बारे में विचार इस बात को
मान कर चलते हैं कि हम तर्कशील प्राणी हैं और हम ब्रह्मांड का अवलोकन करने के लिए
स्वतंत्र हैं और उन अवलोकनों से तर्कपूर्ण परिणाम निकालने में सक्षम हैं. इस
परिप्रेक्ष्य में हम ब्रह्मांड के मूलभूत नियमों के ज्यादा से ज्यादा पास जाते
रहेंगे. लेकिन यदि ऐसी कोई संपूर्ण एकीकृत थ्योरी आस्तित्व में है भी, तो उसमें
हमारे सारे क्रिया-कलापों का भी वर्णन होगा. इस तरह उस थ्योरी में ही यह भी
पूर्वानुमान लगा लिया गया होगा कि हम उस तक पहुंच सकेंगे या नहीं! वह थ्योरी यह
पूर्वानुमान क्यों लगाएगी (या यह पहले से तय करके क्यों रखेगी) कि हम उसका सच जान
सकेंगे? वह यह पूर्वानुमान क्यों नहीं लगा सकती कि हम ग़लत तर्क के माध्यम से ग़लत
परिणामों तक पहुंचेंगे? या हम किसी भी परिणाम तक नहीं पहुंचेंगे?
इस समस्या का मैं
एक ही उत्तर दे सकता हूं और वह डार्विन के प्राकृतिक चुनाव पर आधारित है. वह विचार
यह कहता है कि प्रजनन से जनसंख्या बढ़ाने वाले किसी भी तरह के जीवों की जनसंख्या
में प्रत्येक प्राणी में आनुवंशिकीय या जननिक (जेनेटिक) परिवर्तन और परवरिश के
आधार पर होने वाले परिवर्तन होते हैं. इन परिवर्तनों या असमानताओं की वजह से कुछ
प्राणी (लोग?) अपने आस-पास की दुनिया का अवलोकन कर के उस पर से ठीक पूर्वानुमान
लगाने में दूसरे प्राणियों की तुलना में अधिक सक्षम होंगे, और साथ ही उस तरह से
अपना जीवन परिवर्तित करने में भी. इस बात की ज्यादा संभावना है कि ऐसी ही प्राणी
बच सकेंगे और ज्यादा उम्र तक जिएंगे, और इसीलिए दूसरी पीढ़ी को जन्म भी दे सकेंगे.
इस तरह उनकी तरह सोचने वाले और उनकी तरह जीने वाले प्राणियों की संख्या ज्यादा
रहेगी. भूतकाल में यह बात तो सच ही रही है कि जिसे हम समझदारी और वैज्ञानिक खोज
कहते हैं, उसने मनुष्य का जीवन बचाने में प्रमुख भूमिका निभाई है. आज यह बात इतनी
स्पष्ट नहीं है: हमारी वैज्ञानिक खोजें हम सबको नष्ट करने में सक्षम हैं, और यदि
ऐसा नहीं भी हो, तो संपूर्ण एकीकृत थ्योरी से हमारे जीवन की गुणवत्ता पर बहुत अधिक
फर्क पड़ेगा यह ज़रूरी नहीं है. फिर भी, यह मानते हुए कि ब्रह्मांड का विकास कुछ
नियमों के तहत ही हुआ है, हम यह अपेक्षा तो कर ही सकते हैं कि प्राकृतिक चुनाव ने
मनुष्य को जो तर्कशक्ति दी है, वही उस संपूर्ण एकीकृत थ्योरी की खोज में हमारी
सहायक होगी और इसीलिए हम ग़लत तर्कों के माध्यम से ग़लत परिणामों तक नहीं
पहुंचेंगे.
क्योंकि हमारी आज
की आंशिक थ्योरी से हम लगभग हर परिस्थिति के लिए (कुछ बहुत ही पराकोटि की
स्थितियों को छोड़ कर) काफी सटीक पूर्वानुमान लगा पाते हैं, इसलिए संपूर्ण एकीकृत
थ्योरी की खोज करना इस व्यावहारिक स्तर पर हमें बेमानी लग सकता है. हालांकि ठीक
यही तर्क सापेक्षतावाद के सिद्धांत या अतिसूक्ष्म यांत्रिकी के लिए भी भूतकाल में
दिए जा सकते थे, लेकिन इन्ही थ्योरी ने हमें नाभिकीय ऊर्जा और अतिसूक्ष्म
इलेक्ट्रॉनिक यंत्र दिए हैं. इसीलिए हो सकता है कि संपूर्ण एकीकृत थ्योरी हमारे
जीवन की गुणवत्ता पर कोई असर नहीं डाले. यह भी हो सकता है कि इससे हमारी जीवन-शैली
पर कोई असर ही नहीं पड़े. लेकिन सभ्यता की शुरूआत से ही मानव ने कभी भी घटनाओं या
चीज़ों को आपस में असंबद्ध और रहस्यमय मान कर यूं ही छोड़ नहीं दिया है. मानव को
हमेशा से ही दुनिया की घटनाओं के पीछे छिपे नियमों की खोज करने की उत्सुकता रही
है. आज हमें यह जानने की बहुत उत्सुकता है कि हम कहां से आए हैं और क्यों आए हैं.
मानव-मन की गहराइयों में छिपी ज्ञान की खोज करने की इच्छा ही पर्याप्त कारण है हमारी
इस यात्रा को जारी रखने का. और इस खोज से हमारा सबसे बड़ा उद्देश्य यही है कि हम
ब्रह्मांड के हर रहस्य को जानें.
-- जल्दी आ रहा है - अध्याय 2 स्थान और समय (स्पेस एंड टाइम)
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