अध्याय एक - भाग 3
कोपरनिकस के मॉडल
ने टोलेमी के आकाशीय वृत्तों की ज़रूरत ख़त्म कर दी, और उनके साथ ही इस विचार की
भी, कि ब्रह्मांड की कोई प्राकृतिक सीमा है. साथ ही, चूंकि “स्थिर तारे” एक-दूसरे
के सापेक्ष अपनी स्थिति बदलते नहीं हैं और पृथ्वी के ख़ुद के अक्ष पर घूमने की वजह
से आकाश में घूमते हुए नज़र आते हैं, तो यह समझना लाज़मी था कि ये स्थिर तारे
हमारे सूर्य की तरह की ही चीज़ें हैं, बस ये सूर्य की अपेक्षा बहुत अधिक दूरी पर
स्थित हैं.
न्यूटन ने समझ लिया
था कि उनकी गुरुत्वाकर्षण की थ्योरी के मुताबिक सारे तारे भी एक-दूसरे को आकर्षित
करते होंगे, तो उनके पूरी तरह से स्थिर रहने वाली बात कुछ पल्ले नहीं पड़ती थी.
क्या कभी-न-कभी वे सब एक केंद्रीय जगह पर साथ नहीं आ जाएंगे? सन 1691 में न्यूटन
ने रिचर्ड बेंटली को, जो उस ज़माने के एक अग्रणी विचारक थे, एक पत्र लिखा जिसमें
न्यूटन ने कहा कि उन्हें लगता है कि ऐसा ज़रूर होता यदि तारों की संख्या भी सीमित
होती और अंतरिक्ष का विस्तार भी सीमित होता. लेकिन, उन्होंने तर्क दिया, यदि
अनगिनत तारे हों जो असीमित अंतरिक्ष में लगभग एक-समान तरीके से फैले हुए हों, तो
ऐसा नहीं होगा, क्योंकि ऐसा कोई केंद्र होगा ही नहीं जहां पर सारे तारे एकत्र हो
सकें.
यह तर्क उस ग़लती
का एक उदाहरण है जो आप अनंत के बारे में बातें करते हुए कर सकते हैं. किसी भी अनंत
ब्रह्मांड में हर स्थान को केंद्र माना जा सकता है क्योंकि हर स्थान के चारों ओर
समान संख्या में तारे होंगे. सही तर्क यह होता, जिसका पता बाद में लगाया गया, कि
अंतरिक्ष को अनंत नहीं माना जाए और सारे तारे एक केंद्र पर आ गिरें और उसके बाद क्या
होगा यदि हम इस क्षेत्र के बाहर और तारे जोड़ दें जो लगभग एक-समान तरीके से फैले
हुए हों. न्यूटन के नियमों के मुताबिक, ये अतिरिक्त संख्या में तारे पहले के तारों
पर कोई विशेष अतिरिक्त प्रभाव नहीं डालेंगे और सभी तारे पहले की तरह ही केंद्र पर
गिरते रहेंगे. हम इसमें चाहे जितने तारे जोड़ते रहें, वे सभी इसी तरह एक जगह पर
गिरते रहेंगे. आज हम जानते हैं कि ब्रह्मांड का ऐसा मॉडल बनाना असंभव है जिसमें
अनंत अंतरिक्ष हो और जो अविचल (स्टैटिक) हो और जिसमें गुरुत्वाकर्षण हमेशा आकर्षित
करने वाला बल हो.
बीसवीं सदी से पहले
के विचारों के माहौल की द्योतक यह बात है कि किसी ने भी यह सुझाव नहीं दिया कि हो
सकता है कि ब्रह्मांड फैल या सिकुड़ रहा हो. उस समय यह मान लिया गया था कि या तो
ब्रह्मांड हमेशा-हमेशा से आस्तित्व में है और अपरिवर्तनीय है; या फिर बहुत पहले
इसकी रचना उसी स्वरूप में हुई थी जिसमें हमें यह आज दिखाई देता है. कुछ हद तक यह
विचार इसलिए भी रहे होंगे क्योंकि लोगों को परम सत्य जैसी बातों पर विश्वास करने
का मन करता है, साथ ही इस विचार से भी लोगों को काफी दिलासा मिलता है कि भले ही वे
ख़ुद बूढ़े हो कर मर जाएंगे, लेकिन यह ब्रह्मांड अनंत काल तक इसी हालत में चलता
रहेगा.
यहां तक कि उन
लोगों ने भी यह नहीं सोचा कि हो सकता है ब्रह्मांड फैल रहा हो जिन्हें न्यूटन की
गुरुत्वाकर्षण की थ्योरी से यह समझ में आ गया था कि ब्रह्मांड अविचल नहीं है. इसके
बजाय उन्होंने इसका प्रयास किया कि थ्योरी में परिवर्तन कर के यह दर्शाया जाए कि दरअसल
गुरुत्वाकर्षण बहुत अधिक दूरी पर आकर्षित करने के बजाय दूर धकेलता है. इससे ग्रहों
कि गति के बारे में उनके पूर्वानुमानों पर कोई असर नहीं पड़ता था, लेकिन इससे
अनगिनत तारों का फैलाव संतुलन में रहता था – पास के तारों का खींचने वाला
गुरुत्वाकर्षण दूर के तारों के धकेलने वाले गुरुत्वाकर्षण यानि विकर्षण की वजह से
संतुलित रहता था. लेकिन आज हम जानते हैं कि इस तरह का संतुलन स्थिर नहीं होता: यदि
किसी क्षेत्र के तारे एक-दूसरे के ज़रा भी ज़्यादा पास आ जाएं तो उनके बीच का
आकर्षण अधिक मजबूत हो जाएगा और विकर्षण बल से ज़्यादा शक्तिशाली होगा जिससे ये
तारे एक-दूसरे की ओर आने लगेंगे. दूसरी ओर, यदि तारे एक-दूसरे से ज़रा भी ज़्यादा
दूर हो जाएं, तो विकर्षण बल ज़्यादा शक्तिशाली हो जाएगा और तारे एक-दूसरे से और
ज़्यादा दूर जाने लगेंगे.
-- क्रमशः
फिजिक्स पढ़ने में बहुत धैर्य की जरूरत होती है, मजा आ गया।
ReplyDeleteएक से एक तार जोड़ने में थोड़ा रुकना पड़ता है।