अध्याय एक - भाग 2


अरस्तू को लगता था कि पृथ्वी स्थिर है और सूर्य, चंद्रमा, दूसरे ग्रह और तारे पृथ्वी के चारों ओर वृत्ताकार कक्षा में चक्कर लगाते हैं. उसका यह विचार इसलिए था क्योंकि उसे लगता था कि पृथ्वी किन्ही रहस्यमय कारणों से ब्रह्मांड के बीचों बीच स्थित है, और वृत्ताकार चाल सबसे आदर्श होती है. इस विचार को दूसरी शताब्दी में टोलेमी (Ptolemy) ने आगे बढ़ाते हुए ब्रह्मांड का एक संपूर्ण मॉडल प्रस्तुत किया. इस मॉडल में पृथ्वी केंद्र में स्थित थी और उसके चारों ओर आठ कक्षाएं थीं जिनमें सूर्य, चंद्र, तारे और उस समय जिनकी जानकारी थी वे पांच ग्रह बुध, शुक्र, मंगल, शनि और गुरू चक्कर लगाया करते थे. (देखें चित्र 1.1) आकाश में उनकी जटिल गतियों को समझाने के लिए ग्रहों को उनकी कक्षाओं से जुड़े अन्य छोटे वृत्तों पर गति करते हुए दर्शाया था. सबसे बाहरी वृत्त पर तथाकथित स्थिर तारे दर्शाए थे जो एक-दूसरे के सापेक्ष एक ही स्थिति में रहते थे लेकिन आसमान में एक साथ गति करते थे. इस अंतिम वृत्त के परे क्या था इस पर कोई प्रकाश नहीं डाला गया क्योंकि वह मानव के दृश्य-ब्रह्मांड के बाहर की चीज़ें थीं.

चित्र 1.1: पुस्तक से


टोलेमी के मॉडल में आकाशीय पिंडों की स्थिति का पूर्वानुमान लगाने की ठीक-ठाक व्यवस्था थी. लेकिन इन स्थितियों की एकदम सही गणना करने के लिए टोलेमी को एक कल्पना यह करनी पड़ती थी कि चंद्रमा का पथ ऐसा था जिसमें कुछ समय तक पृथ्वी से उसकी दूरी आधी ही रह जाती थी. लेकिन इसका मतलब था कि उन दिनों में चंद्रमा को दो गुना बड़ा दिखाई देना चाहिए था! टोलेमी को अपनी इस ग़लती का अहसास था, लेकिन उन दिनों उसका मॉडल अधिकांश लोगों द्वारा मान्य किया गया था. इस मॉडल को ईसाई चर्च द्वारा ब्रह्मांड के शास्त्र-सम्मत मॉडल के रूप में स्वीकार भी किया गया था, क्योंकि इसमें सातवें वृत्त के परे स्वर्ग और नर्क के लिए काफी जगह बचती थी.

लेकिन सन 1514 में पोलैंड के एक पादरी निकोलस कोपरनिकस ने इससे कम जटिल मॉडल प्रस्तुत किया. (शुरू में कोपरनिकस ने अपना मॉडल बिना नाम के प्रकाशित किया था क्योंकि उसे डर था कि कहीं उसका चर्च उसे धर्म-विरोधी करार न दे.) उसका विचार यह था कि सूर्य केंद्र में स्थिर है और पृथ्वी और अन्य ग्रह उसके चक्कर लगाते हैं. लगभग एक शताब्दी बाद उसके विचार को गंभीरता से लिया जाने लगा. दो खगोल शास्त्री – जर्मनी के योहान्स केपलर और इटली के गैलीलियो गैलिली – कोपरनिकस के मॉडल का सार्वजनिक रूप से समर्थन करने लगे, हालांकि इस मॉडल के कक्षाओं के बारे में पूर्वानुमान भी प्रत्यक्ष दर्शन से मेल नहीं खाते थे. सन 1609 में अरस्तू / टोलेमी के मॉडल के ताबूत में आख़िरी कील ठोकी गई. उस वर्ष में गैलीलियो ने आकाश को एक दूरबीन से देखना शुरू किया, जिसका आविष्कार हाल ही में हुआ था. जब गैलीलियो ने इस दूरबीन से गुरू ग्रह को देखा तब उसे उसके चारों ओर कई उपग्रह या चंद्रमा दिखाई दिए जो उसके चक्कर लगा रहे थे. इसका मतलब था कि हर चीज़ सीधे पृथ्वी के चक्कर नहीं लगा रही थी, जैसा अरस्तू और टोलेमी सोचते थे. (हालांकि यह भी संभव था कि पृथ्वी अब भी ब्रह्मांड के केंद्र में स्थिर हो और गुरू के उपग्रह पृथ्वी के चारों ओर बहुत ही जटिल पथ पर गति करते हों जिससे हमें ऐसा लगता हो कि वे गुरू की परिक्रमा कर रहे हैं. लेकिन कोपरनिकस की थ्योरी इससे कहीं आसान थी.) इसी दौरान केपलर ने कोपरनिकस के मॉडल में कुछ सुधार किए थे और कहा था कि ग्रह वृत्ताकार परिधि में गति नहीं करते, बल्कि लंबवृत्ताकार (एलिप्टिकल) गति करते हैं. अब इस मॉडल के पूर्वानुमान प्रत्यक्ष दर्शन से मेल खाने लगे थे.

जहां तक केपलर की सोच थी, लंबवृत्ताकर कक्षाएं तो बस तात्कालिक समाधान था, जो इतना अच्छा भी नहीं था, क्योंकि लंबवृत्त को वृत्त की तुलना में कम आदर्श समझा जाता था. उन्होंने किसी तरह यह तो पता लगा लिया था कि पूर्वानुमानों को प्रत्यक्ष दर्शन के समकक्ष लाने के लिए लंबवृत्ताकार कक्षाएं ही सही हैं, उन्हें लंबवृत्त का इस बात से मेल बैठाने में परेशानी हो रही थी कि सारे ग्रह सूर्य का चक्कर चुंबकीय शक्तियों के कारण लगाते हैं, जो कि उनका अपना विचार था. इसका स्पष्टीकरण काफी समय बाद हो पाया, जब सन 1687 में न्यूटन ने अपनी पुस्तक फिलॉसोफिए नेचुरेलिस प्रिंसिपिया (कुछ लोग प्रिंकिपिया कहते हैं) मैथमेटिका प्रकाशित की, जो शायद भौतिक विज्ञानों की अब तक की सारी प्रकाशित पुस्तकों में से सबसे महत्वपूर्ण एकल पुस्तक है. इसमें न्यूटन ने न सिर्फ आकाशीय पिंडों की स्पेस और टाइम यानि अंतरिक्ष और समय में गति के लिए अपनी  थ्योरी दी, बल्कि उन्होंने इन गतियों को समझने और उनकी गणना करने के लिए गणित की एक नई शाखा भी ईजाद की. साथ ही न्यूटन ने सार्वभौमिक गुरुत्वबल के नियम भी बताए जिनके अनुसार ब्रह्मांड का प्रत्येक पिंड हर दूसरे पिंड की ओर एक विशेष बल से आकर्षित होता है और यह बल किन्ही दो पिंडों के बीच उतना ही अधिक शक्तिशाली होगा जितना उन पिंडों का द्रव्यमान अधिक होगा और उनके बीच की दूरी जितनी कम होगी. यह वही बल था जिसकी वजह से चीज़ें हमेशा नीचे, ज़मीन की ओर गिरती थीं. (यह कहानी निश्चय ही सत्य नहीं है कि न्यूटन को इसकी प्रेरणा एक सेब के उनके सिर पर गिरने से मिली थी. न्यूटन ने केवल इतना ही कहा है कि उन्हें यह विचार तब आया जब वे “विचारों में खोए बैठे थे” और “एक सेब को गिरते देख रहे थे.”) न्यूटन ने यह भी दर्शाया कि, उनके नियम के मुताबिक, चंद्रमा पृथ्वी के चारों ओर लंबवृत्त में चक्कर काटता है और पृथ्वी और अन्य ग्रह सूर्य के चारों ओर लंबवृत्त में परिक्रमा करते हैं और यह सब गुरुत्वाकर्षण के कारण होता है.

-- क्रमशः

Comments

  1. इसमें टैग नहीं किया भाई

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    1. घणी खम्मा सरकार. अगली बार ध्यान रखूंगा.

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