नेह
Picture Credit and Copyright: Mr. Tanveer Farooqui |
कुमारजी की
बरसी के दिन होने वाले कार्यक्रम में इस बार पहले ओंकार दादरकर और फिर जाने-माने
ध्रुपद गायक गुन्देचा बंधुओं का शास्त्रीय गायन रखा गया था. इस कार्यक्रम की चर्चा
फिर कभी. इस समय जो बातें मन में उमड़ रही हैं उन्हें किसी तरह टूटे-फूटे शब्दों
में आपके सामने रखने की इच्छा है.
हम लोग समय से
थोड़ा जल्दी ही पहुंच गए थे, इसलिए कलापिनी ताई से एक-दो वाक्य बात कर सके. जैसा
कि मैंने पहले बताया था, हमारा परिचय नहीं होते हुए भी उन्होंने बड़ी उदारता से
मुझे फ़ेसबुक पर मित्र-सूची में स्थान दे रखा है. एक-दो बार फ़ेसबुक पर ही उनके
साथ कुछ वाक्यों का आदान-प्रदान भी हुआ है. इससे अधिक की मेरी योग्यता न होते हुए
भी उन्होंने मुझे याद रखा है, तो यह निश्चय ही उनका बड़प्पन है.
जिस आत्मीयता से वे उस दिन हमसे मिलीं और बात की, लगता ही नहीं था कि मैं कोई परदेसी
राहगीर हूं और वे पालकी में सवार महारानी. उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैंने
कुमारजी का कमरा देखा हुआ है; और मेरे तो होश ही उड़ गए. मेरे संभलने से पहले ही
उन्होंने घर की किसी सदस्य को हमें दर्शन करवाने के निर्देश दे कर हमारे साथ रवाना
भी कर दिया था. मैं मन-ही-मन बल्लियों उछलता हुआ उन सीढ़ियों तक गया जिन पर पैर
रखने का सपना देखना भी मेरे लिए दुर्लभ था.
कमरे के
दरवाज़े पर ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए. मन में सिर्फ यही विचार आ रहे थे कि इस
कमरे ने किन-किन महान विभूतियों को अपने अंदर बैठाया होगा. कुमारजी का तो ख़ैर वह
घर ही है, साथ ही मुझे जो नाम बार-बार याद आ रहे थे वे थे पं. भीमसेन जोशी, डॉ.
वसंतराव देशपांडे, पु.ल. देशपांडे, रामूभैया दाते, राहुल बारपुते, और चिंचालकर
गुरुजी के. अंदर कदम रखते ही मैं किसी दूसरी ही दुनिया में पहुंच गया. सारे कमरे
में उस समय भी मुझे कुमारजी की उपस्थिति महसूस हुई. यह बात मैं इसलिए नहीं कह रहा
कि मुझे इस लेख को सुंदर बनाना है, या ऐसा कहने का रिवाज है. अंदर कदम रखने से ले
कर फिर बाहर निकलने तक मेरा बस रोने का मन कर रहा था. कहते हैं कि ईश्वर की
अनुभूति या साक्षात् दर्शन के समय भी रोने का मन करता है. वह कुछ मिनट मेरी सबसे
अमूल्य सम्पत्ति बन गए हैं. मुझे वहां पर भी अपनी नाकाबिलियत का अहसास नहीं छोड़
रहा था. बार-बार लगता था कि अचानक कुमारजी सामने के दरवाज़े से अंदर आएंगे और मुझे
डांट कर भगा देंगे. या फिर, जैसे सम्राट विक्रमादित्य के सिंहासन में से पुतलियां
निकल कर राजा भोज से पूछती थीं कि क्या तुममें इस सिंहासन पर बैठने की योग्यता है;
वैसे ही यदि किसी ने मुझसे पूछ लिया कि क्या तुममें यहां पर पैर रखने की भी
योग्यता है, तो क्या होगा? कमज़ोर मन में ऐसे सवाल आने स्वाभाविक ही हैं. लेकिन
फिर ख़ुद को यही सोच कर दिलासा दिया कि मंदिर में जाने पर बड़े-से-बड़े पापी से भी
यह नहीं कहा जाता कि तुम यहां क्यों आए हो, तुम्हारी क्या योग्यता है. फिर मैं तो
भक्त ठहरा.
कहते हैं कि
मोक्ष पाने के दो रास्ते हैं – एक है ज्ञान प्राप्ति का रास्ता, और दूसरा है भक्ति
का रास्ता. यह भी सुना है कि ज्ञान का मार्ग कठिन है, और भक्ति का मार्ग सरल.
श्रवण-भक्ति, यानि संगीत सुनने से प्रेम होना वाकई कठिन नहीं है. संगीत की समझ
होना ज्ञान मार्ग वाली बात है. मुझ आलसी के लिए वह रास्ता वास्तव में बहुत कठिन
है. श्रवण-भक्ति करने में बस गर्दन हिला कर दाद ही तो देनी होती है. मैंने बहुत
पहले यह तय कर लिया था कि यदि इतना-सा ही करना होता है, तो यही मेरा रास्ता है.
इसी मार्ग ने मुझ अंगूठा-टेक को ऐसी जगह पहुंचा दिया जहां जाने की बात भी कभी मैं नहीं
सोच सकता था, सस्नेह आमंत्रित किया जाना तो स्वप्न-वत् ही था.
लगता नहीं था
कि रुलाई कभी रुकेगी. रुकती भी नहीं यदि हम वहां से बाहर न निकलते. मैं और मेरी
बहन, हम दोनों का मन वहां से हिलने का हो ही नहीं रहा था, लेकिन शायद किसी ने यह
बात भांप ली थी. उन्हें नाश्ते का लालच दे कर हमें वहां से निकालना पड़ा. इसमें घर के लोगों
को जो भी कष्ट हुए हों उसके लिए मैं क्षमा चाहता हूं.
तो बात चल रही
थी स्नेह की. कलापिनी ताई का हम लोगों से इतने अपनेपन से मिलना, हमें कुमारजी के
घर में उनके दर्शन करवाना और सारे समय उन्होंने जो हमारी और अन्य सभी लोगों की
आवभगत की – ये सारी बातें उनके व्यक्तित्व की ऊंचाई को दर्शाती हैं. नितांत
अपरिचित लोगों को अपनेपन से जीत लेना, और उन्हें अपना मुरीद बना लेना उनके स्वभाव
की विशेषता है. तो इसीलिए इस पोस्ट का शीर्षक है नेह. यह देशज शब्द मेरे ज़हन से
जाने का नाम ही नहीं लेता. भानुकुल में उस सुबह मुझे जो कुछ महसूस हुआ, उसे केवल
यही शब्द बयान कर सकता है.
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