उज्जैन में एक और संगीत-भरी शाम
शनिवार,
दिनांक 19 अगस्त 2017. स्थान – फेसबुक. समय – रात 8.10
मैंने ख़ुद पर गर्व करने जैसे काम बहुत ही कम, उंगलियों पर गिनने लायक संख्या में ही किए हैं. उनमें
से एक है येन-केन-प्रकारेण कलापिनी कोमकलीजी की फेसबुक फ्रेंडलिस्ट में शामिल
होना. इस बात को काफी समय हो गया है, और उन्होंने उस समय परिचय नहीं होते हुए भी
मेरी फ्रेंड रिक्वेस्ट को स्वीकार किया था. मुद्दे की बात – शनिवार को मैंने
कलापिनी ताई से फेसबुक पर निवेदन किया था कि रविवार को महाकाल मंदिर, उज्जैन में
होने वाले उनके शास्त्रीय गायन के कार्यक्रम में राग शंकरा प्रस्तुत करें. मौसम भी
था, मौका भी. कुमारजी की बंदिश "सिर पे धरि गंग" तो मेरे घर में सभी की
परम प्रिय है ही.
रविवार,
दिनांक 20 अगस्त 2017. स्थान – महाकाल मंदिर प्रांगण, उज्जैन. समय – शाम 7 के कुछ
ही बाद.
इस शाम की संगीत सभा की शुरूआत हुई उनके मियां की मल्हार
से. जब उन्होंने बड़ा ख्याल “कारे बदरवा बरसत नाही” शुरू किया, तब आलाप ही इतना
शानदार था कि लगता था बस सुनते ही रहा जाए. वैसे भी कलापिनी ताई का आलाप मुझे बेहद
पसंद है. खर्ज अर्थात बेस (bass) वे बहुत तबीयत से लगाती हैं.
मेरे लिए उनके आलाप में खर्ज सुनना यानि पहले 'आ'कार में ही एक तृप्ति का अहसास
है. लेकिन ये तृप्ति क्षणिक होती है. क्योंकि मन जानता है कि ऐसी शुरूआत आगे आने
वाले चमत्कारों का पूर्वसंकेत होती है.
उन्होंने मियां की मल्हार की द्रुत में "बोले रे
पपीहरा" गाया. विलंबित के समय बनाए हुए आधार यानि बेस (base) का बेहद खूबसूरत उपयोग छोटा ख्याल गाने के लिए एक launching
pad के रूप में
किया गया. आज दो दिनों के बाद भी "बोले रे पपीहरा" के दौरान सुनी हुई स्वरों
की आतिशबाज़ी अचानक याद आती है. साथ लाती है चेहरे पर मुस्कान और गर्दन बरबस फिर
उसी तरह हिल कर दाद देती है जिस तरह रविवार को हिली थी.
मल्हार की द्रुत ख़त्म होने के बाद ब्रेक के दौरान मैं
कुर्सी से उठ कर मंच के सामने ही नीचे जा बैठा. वहां बैठने की मेरी इच्छा तो शुरू
से ही थी, लेकिन वहां पहले कोई और बैठा नहीं था तो थोड़ा संकोच हो रहा था. गायन के
दौरान कुछ लोग वहां जा कर बैठे जिससे मेरी भी हिम्मत खुली. लेकिन गायन चल रहा हो
तब उठ कर जगह बदलना मुझे आचरण संहिता के विरुद्ध लगता है. इसलिए ब्रेक के दौरान
जगह बदली. इच्छा तो यही थी कि जगह बदलने का काम सूम में पूरा हो जाए और मंच पर कोई disturb नहीं हो. लेकिन चूंकि मंच के ठीक सामने ही था, तो
कलापिनी ताई का ध्यान चला ही गया.
मंच से उन्होंने कहा कि (शब्दशः नहीं, स्मृति से बता रहा हूं) "कमलेशजी इंदौर से आए हैं, आगे आ कर बैठे हैं. उन्होंने विभिन्न
माध्यमों से मुझे आग्रह किया है कि मैं आज शंकरा सुनाऊं. तो मैं मध्य लय में दो
बंदिशें सुनाऊंगी. हालांकि समय की थोड़ी कमी है इसलिए थोड़ा ही सुनाऊंगी. (विंग
में देख कर) अच्छा, समय है, ठीक है. तो ये कुमारजी की बंदिशें हैं. उन्होंने
इन्हें पहले ही इतनी ऊंचाई पर ले जा कर रखा है कि हम तो हाथ भी नहीं लगा सकते हैं.
फिर भी कोशिश करती हूं."
उसके बाद उन्होंने जो गाया, उसका शब्दों में वर्णन
मुश्किल है. दोनों ही बंदिशों को उन्होंने जिस तैयारी से गाया, जिस maturity से उन्हें handle किया, वह अकल्पनीय था. ख़ास कर "सिर पे धरि गंग" तो सांस रोक कर
सुनने की चीज़ थी. मुझे पूरा विश्वास हो गया कि ताई ने हालांकि सही कहा था और
कुमारजी ने इसे बहुत ऊंचाई पर ले जा कर रखा है; लेकिन साथ ही वे ताई को सीढ़ी भी
सौंप गए हैं और उस पर चढ़ने का तरीका भी सिखा गए हैं. यदि मैं बिना भावनाओं वाला
काष्ठवत् इंसान नहीं होता, तो शंकरा सुनने के बाद मेरी आंखें ज़रूर नम हुई होतीं.
लेकिन यह मेरी कमज़ोरी है कि ऐसी भावनाएं मन में तो आती हैं, लेकिन व्यक्त नहीं होतीं.
व्यक्त करना कभी तो सीख ही जाऊंगा.
अंत में कलापिनी ताई ने केदारनाथजी की आरती और कबीर का
भजन "कौन ठगवा नगरिया लूटल हो" गा कर अपनी प्रस्तुति समाप्त की. भीगा
हुआ मन ले कर मैं अपनी सीट पर लौट आया.
कार्यक्रम के अगले भाग में शुभेंद्र राव और सस्किया राव
की सितार – चेलो की जुगलबंदी थी. शुभेंद्रजी ने अपने गुरूजी पं. रविशंकर के राग
जनसम्मोहिनी में आलाप, जोड़ और झाला से शुरूआत की. दोनों वाद्यों के बीच का समन्वय सुनने
के साथ ही देखने की भी चीज़ थी. दोनों वाद्यों का एक-दूसरे का पीछा करना और इन्हीं
अटखेलियों के बीच गत को बड़ी खूबी से आगे बढ़ाना अपने आप में अद्भुत था. आपस में
दाद देने का सिलसिला भी अनवरत था. सस्कियाजी के इंडियन चेलो वादन में मुझे एक प्रयोगधर्मिता
और कुछ नया अनुभव करने का उल्लास दिखाई दिया. यह मेरी अपनी अज्ञ राय है, मुझे पता
है कि मैं किसी भी तरह से इस लायक नहीं हूं कि किसी भी तरह के संगीत के बारे में टिप्पणी
कर सकूं.
यह बेहतरीन गठजोड़ बाद में कर्नाटक संगीत के राग
वाचस्पति के रूप में आगे बढ़ा. मुझे कहीं पढ़ा हुआ याद आता है कि जनसम्मोहिनी के
आरोह और अवरोह दोनों में मध्यम का उपयोग करने पर राग वाचस्पति बनता है. बहुत पहले
की बात है. शायद मेरी याददाश्त मुझे धोखा भी दे रही हो. लेकिन मेरे untrained कानों को दोनों में काफी समानता लगी.
जनसम्मोहिनी – वाचस्पति के समाप्त होने पर ब्रेक में
दुर्भाग्य से हमें संगीत सभा को छोड़ कर इंदौर लौटना पड़ा. मिश्र पीलू नहीं सुन
पाए इसका रंज है.
विशेष:
कुमारजी द्वारा रचित की राग शंकरा की बंदिश नीचे दे रहा
हूं:
सिर पे धरि गंग, कमर मृग छाला
मुंड
की गले माला, हथेली सूल (शूल) साजे
पिनाकी महाज्ञानी, अजब रूप धारे
डुलत
डुला आवे, डिमरू डिम बाजे
अद्भुत
ReplyDeleteमुझे इतनी गहरी समझ तो नहीँ है
पर सुनना चाहता हूं।
लिन्क मिल सकता है क्या?
एक और ब्लॉग पोस्ट. इस बार एक ऐसा विषय जिसके बारे में मैं कुछ भी नहीं जानता, सिवाए इसके कि वह विषय मुझे बहुत, बहुत पसंद है. कलापिनी ताई से इस धृष्टता के लिए अग्रिम क्षमायाचना के साथ इसे पोस्ट कर रहा हूं.
ReplyDeleteसभी मित्रों से निवेदन है कि संभव हो तो ब्लॉग पर ही मुझे बुरा-भला कहें, कृपया फेसबुक पर मेरा जुलूस न निकालें. निवेदन ही कर सकता हूं.
राजेश कंचन भाई - YouTube पर आप कुमारजी का गाया "सिर पे धरि गंग" सुन सकते हैं. मेरे ख़याल से Kumar Gandharva Raga Shankara से ढूंढने पर मिल जाएगा.
भाई तबियत मस्त हो गई
ReplyDeleteमेरी समझ से बहुत सुंदरता लिखा
और जब ये आया कि कमलेश जी इंदौर से आये हैं
तो,अपने आप बहुत गहरी साँस भर गई और
छाती फूल गई साथ ही थोड़ा तन कर सिर ऊँचा हो गया अनजाने में
ह