बिना शीर्षक
महादेव के माता-पिता गूंगे-बहरे थे, लेकिन वह खुद बोल-सुन सकता था। उनसे बातें
करने के लिये महादेव बचपन से ही इशारों की भाषा, यानि IPSL सीख गया
था। उसके माता-पिता खुद इस भाषा के जानकार थे और उन्हीं से महादेव ने यह भाषा सीखी
थी। हालांकि उसके पिता हिंदी और अंग्रेजी भी पढ़, समझ और लिख सकते थे (जो कि
मूक-बधिर लोगों में विशेष बात है), लेकिन महादेव अंग्रेजी के मामले में बहुत कच्चा
था। महादेव के माता-पिता घर ही में टेलरिंग का काम करते थे और किसी तरह गुजर-बसर
करते थे। महादेव सरकारी स्कूल में पढ़ता था, लेकिन पढ़ाई-लिखाई में उसका मन बिलकुल
नहीं लगता था। उनके गांव में आमने-सामने बने दो सिनेमाघर थे जिनमें से एक के पास
एक पान की दुकान थी। दुकानदार महादेव का दोस्त था और वे दोनों पिक्चरों की और
हीरोइनों की बातें किया करते थे।
महादेव का दोस्त एक बार उसे कोई नाटक देखने शहर ले गया। वह पहली बार ही नाटक
देख रहा था, इसलिये उसे सारा माहौल बहुत अच्छा लगा। स्टेज की सजावट, नाटक में काम
करने वालों का मेक-अप और उनके डायलॉग बोलने का ढंग आदि से वह बहुत प्रभावित हुआ।
उसके मन में आया कि वह भी नाटकों से जुड़े और खूब नाम कमाए। जब उसने इस बारे में
गहराई से सोचा, तब उसे समझ आया कि वह इस काम के लिये बिलकुल नाकारा है। नाटक में
पिक्चर की तरह रीटेक नहीं हो सकते, यानि डायलॉग याद करने वगैरह के लिये काफी मेहनत
करनी पड़ेगी। नाटक की रिहर्सल महीनों चलती है, और उसमें नियमित रूप से दिन के कुछ
घंटे जाना पड़ता है। उसके आलसी मन को यह सब मंजूर नहीं था।
फिर उसने सोचा कि क्यों न नाटक लिखे जाएं। चाहे जब लिखा जा सकता है, समय की
पाबंदी नहीं है, कुछ खास मेहनत का भी काम नहीं है। सबसे खराब हालत में, यदि नहीं
लिखा गया, तो भी किसी का कुछ नहीं बिगड़ने वाला। उसे यह आइडिया पसंद आया, लेकिन
तुरंत ही वह फिर उदास हो गया। नाटक किस विषय पर लिखा जाए, यह उसे इतनी बड़ी समस्या
लगी कि वह उस विचार से तौबा कर बैठा। लेकिन कुछ दिनों बाद उसके मन में फिर से यह
कीड़ा कुलबुलाया। अब तो वह जितना इस बारे में सोचता, उतना ही यह उसे आसान लगता। "सिर्फ एक विषय मिल जाए, बस!" वह दिन-रात इसी
उधेड़-बुन में लगा रहता। एक दिन वह अपने दोस्त पनवाड़ी से इस गंभीर मसले पर बात कर
रहा था तभी पनवाड़ी बोला, "तू अपने मां-बाप
पे क्यों नी लिखता यार? भेतरीन आइडिया रेगा। उनके
जीवन की भव्य-सी कहानी, जिसमें संघर्स रेगा ओर फिर तू तो सब जानता ही हे। तेरेको
कुछ मन से लिखना भी नी पड़ेगा। हे के नी सई बात?" पनवाड़ी ने जब भी "भव्य" शब्द सुना या पढ़ा था, हमेशा उसका अर्थ उसके मन में "सुंदर" आता था। जैसे, भव्य समारोह यानि सुंदर समारोह वगैरह।
महादेव ने माणिकचंद की पीक को पास की नाली में थूक कर इस प्रस्ताव पर मनन
किया। "तेरी बात तो सई हे यार, पन अपन को येई समझ में नी आ रिया हे
कि सुरू किदर से करेंगे। खेर, में इसपे सोचता हूं।" बात उसके मन में काफी गहरे तक उतरने लगी थी। उस रात सोने से पहले उसने अपने स्कूल
के बस्ते में से एक नोटबुक निकाली और पेन ले कर काफी देर तक लिखने की कोशिश की।
करीब आधे घंटे के बाद वह केवल दो शब्द लिख पाया था – "ॐ" और "नाटक"। इतनी मेहनत को आज के लिये काफी मान कर वह सो गया।
उसके नाटक-लेखन की शुरूआत भले ही कुछ खास "भव्य" न हुई हो, लेकिन आश्चर्यजनक तरीके से अगले एक महीने में
उसने करीब आधा नाटक लिख लिया था। इस नाटक में दो विशेष बातें थीं – एक तो यह कि
उसके मुख्य पात्र गूंगे-बहरे थे (जो कि स्वाभाविक था), और दूसरी यह कि इसके अधिकतर
संवाद इशारों की भाषा में थे। महादेव की हिंदी का स्तर आप देख ही चुके हैं और
अंग्रेजी के बारे में मैं आपको बता चुका हूं। तो महादेव ने आसान रास्ता चुना और उस
तीसरी भाषा का सहारा लिया जिस पर उसका अधिकार हिंदी और अंग्रेजी से ज्यादा था।
भाषा की असुविधा दूर होने के बाद उसके मन में नाटक की कहानी उमड़ने लगी थी। उसने
नाटक को संवादों में न लिखते हुए कहानी के रूप में लिखना शुरू किया, जिससे पहले
उसके मन में उसका एक ढांचा तैयार हो जाए। फिर वह उसे नाटक का रूप दे सकेगा। शायद
अपनी स्कूल में पढ़ाने वाले हिंदी के शिक्षक देहुलिया जी उर्फ मुकरी सर से वह मदद
भी ले सकेगा। अपनी क्लीन शेव, घुंघराले बाल और कुल जमा पांच फुट की ऊंचाई के कारण
उनका यह नाम पड़ा था।
करीब तीन महीनों के बाद जब महादेव मुकरी सर के घर अपनी नोटबुक ले कर गया, तब
उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। वे चारपाई पर बैठे थे और अपनी बंडी की जेब में रखा बीड़ी
का बंडल निकाल रहे थे। जब महादेव ने अपने आने का कारण बताया तब तो वे चारपाई से
गिरते-गिरते बचे। सबसे बड़ा झटका तो उन्हें तब लगा जब उन्होंने महादेव की
नाटक-कहानी को पढ़ना शुरू किया। निम्न-स्तरीय हिंदी को पढ़ने में उन्हें काफी
मेहनत करनी पड़ी, लेकिन जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ी, वे उसमें उलझते चले गए। इतनी
खराब भाषा में इतनी अच्छी कहानी उन्हें पढ़ने के लिये मिलेगी इसका उन्हें सपने में
भी ख़याल नहीं था। पढ़ चुकने के बाद वे भाव-विभोर हो कर बोले, "रे महादेव, तू तो भोतई बड़ा लेखक निकला बे। चल, जल्दी से भाग के तेरे दोस्त की
दुकान पे जा ओर मेरे लिये एक बिंडल-माचिस ले के आ।"
मुकरी सर ने महादेव की काफी मदद की और उससे नाटक अच्छी तरह लिखवा लिया। इसी
दौरान उन्होंने यथाशक्ति उस नाटक की भाषा भी सुधरवा ली। उन्होंने अपने दोस्त
शिक्षक मटाई को, जो कि शहर की एक स्कूल में पढ़ाते थे, नाटक भेजा। मटाई सर ने उसे
अपने एक सांध्य-दैनिक के पत्रकार दोस्त को दिखाया और उसने उसे शहर की शौकिया नाटक
मंडली के कलाकारों को दिखाया। उस मंडली के निर्देशक परमार को नाटक बहुत पसंद आया
और उसने उसे अपने अगले शो के लिये मंच पर लाने की इच्छा जाहिर की। इसके लिये महादेव
को शहर बुलाया गया और वह आ कर नाटक मंडली से मिला। एक मंदिर के पीछे के कमरे में
उनसे चर्चा के दौरान महादेव को पहली बार लगा कि अपनी भाषा कुछ अच्छी नहीं है। वह
सिर्फ गर्दन हिला कर या फिर "नी", "हौ" आदि बोल कर काम
चला रहा था। परमार ने यह भांप लिया। वह उसे बाहर आंगन में ले कर आया और उसके साथ
माणिकचंद शेयर किया। कुछ इधर-उधर की बातें कीं और महादेव की तरह ही ठेठ हिंदी में
बातें कीं। तब जाकर महादेव कुछ सामान्य हुआ। परमार और उसके साथियों के सुझावों के
अनुसार नाटक में कुछ बदलाव किये गए। नाटक का नाम रखा गया "मुहाजिर"। उसमें एक सूत्रधार का पात्र डाला गया। यह भूमिका महादेव
को देना तय हुआ, क्योंकि सूत्रधार को sign language का इस्तेमाल
करते हुए नाटक की कहानी मूक-बधिर दर्शकों तक पहुंचानी थी। यह नाटक इन मायनों में
क्रांतिकारी होने वाला था कि इसका आनंद ऐसे लोग भी उठा सकते थे जो सुन नहीं सकते
थे।
"मुहाजिर" नाटक का विज्ञापन इसी तरह से किया गया। "मुहाजिर" ने सफलता के झंडे गाड़े और महादेव को ढेरों तारीफ मिली।
पैसा कुछ नहीं मिला, क्योंकि इसे शौकिया कलाकारों ने किया था। महादेव को लगा कि
उसका सपना पूरा हो गया है। इस शोहरत ने महादेव को और भी शर्मीला बना दिया था। उसे
इस सब की आदत नहीं थी, सो वह बहुत असहज महसूस करता था। उसने इस तरह से पैसा कमाने
के बारे में सोचा ही नहीं था, लेकिन एक कसक-सी उसके मन में थी कि नाम के साथ कुछ
दाम भी मिल जाता तो क्या बुरा था। उसके नाटक की एक सी.डी. भी बनी थी, लेकिन वह भी
सिर्फ एक छोटे-से सर्कल में कुछ दिन चली और फिर मामला ठंडा हो गया।
महादेव अपने गांव लौट आया और फिर उसका पुराना रूटीन शुरू हो गया था। पनवाड़ी
को वह अपने शहरी जीवन और "मुहाजिर" के समय के कुछ सच्चे और कुछ मनगढ़ंत किस्से सुनाता और दोनों ठहाके लगाते रहते।
अचानक एक दिन महादेव के पास संदेश आया कि परमार ने उसे फिर से शहर बुलाया है। अबकी
बार अपने पनवाड़ी मित्र को साथ ले कर वह परमार से मिलने पहुंचा। वहां उसे पता चला
कि उसके नाटक को किसी ने अमरीका में YouTube पर देखा और फिर
किसी बड़े निर्देशक तक यह बात पहुंची। वही फिल्मकार उससे मिलने आया था और इसीलिये
परमार ने उसे बुला भेजा था।
"Call me Steve," एक चश्मा लगाए, खिचड़ी बालों वाला और हल्की दाढ़ी रखा हुआ
गोरा उससे हाथ मिलाने के लिया आगे बढ़ा। महादेव के गले से एक आवाज़ निकली जिसका एक
अनुवाद "हूं" या "हम" हो सकता था। उसने कुछ झिझक के बाद हल्के-से हाथ मिलाया और
एक कदम पीछे हटा। "I'd
like for us to talk alone, please," उस गोरे ने परमार से कहा। परमार ने विरोध करने की कोशिश की, लेकिन गोरे ने एक
नहीं सुनी। जब बाकी सारे लोग चले गए, तब गोरा उसे समझाने की कोशिश करने लगा, "I know you don't understand English, but I wanted
to see if I can get through to you, do you understand?" महादेव का सपाट चेहरा देख कर स्टीव ने फिर पूछा, "Do you understand?" अबकी बार महादेव समझ गया और उसने विचित्र ढंग से गर्दन
हिलाई। स्टीव काफी देर तक बोलता रहा और महादेव एक या दो शब्द समझ कर बाकी का मतलब
अपने मन से निकालने की कोशिश करता रहा। धीरे-धीरे महादेव नर्वस होने लगा। उसे लगा
कि जा कर बाकी सारे लोगों को बुला लाए। स्टीव काफी उत्साह में आ गया था। वह तेज़ी
से अंग्रेजी में काफी कुछ बोल रहा था और कमरे में इधर-उधर घूमते हुए अपने हाथों से
लम्बे-चौड़े इशारे कर रहा था। और कुछ समय बीता। महादेव की हिम्मत जवाब दे चुकी थी
और वह रूआंसा होने लगा था। "I would pay millions to get my hands on the rights to your play. I am
sure that's your dream too," स्टीव ने कहा और महादेव के पास आ कर उसे अपनी बाहों में भरने की कोशिश की।
अब महादेव से रहा नहीं गया। वह चतुराई से पीछे हटा और सोफे के ऊपर से छलांग
लगाते हुए दरवाज़े की ओर भागा। परमार के घर से बाहर निकलते हुए वह तीर की तरह सड़क
पर दौड़ता चला गया। सीधा बस अड्डे पर जा कर अपने गांव की बस में बैठ गया। उसकी
सांस तेज़ी से चल रही थी – दौड़ने से भी और हाल के अनुभव के कारण भी। उसे अपने
दोस्त पनवाड़ी की भी सुध नहीं रही। दो घंटे बाद गांव पहुंचते-पहुंचते उसके दिल की
धड़कन कुछ सामान्य हुई। वह अपने घर जा कर सो गया।
अगले दिन पनवाड़ी ने कुछ ख़ास शब्दों से उसका स्वागत किया। उसे पीछे छोड़ आने
के लिये उसने कड़े शब्दों में महादेव की निंदा की और माणिकचंद उधार देने से मना कर
दिया। वह और कठोर भर्त्सना करने वाला था, लेकिन उसने पहले महादेव से एक प्रश्न
पूछा जिसका जवाब जानने की उसे बड़ी उत्सुकता थी। "वो अंग्रेज तेरे से के क्या रिया था बे?" उसने धारा-प्रवाह गालियों के बीच महादेव से पूछा। महादेव ने बुरा-सा मुंह
बनाते हुए कहा, "कुछ समझ में नी आया यार।"
यह कहानी लिखने के लिए मुझे मेरे चार मित्रों ने कुछ शब्द दिए थे - मुझे इस कहानी में 'महादेव', 'सूत्रधार', 'मुहाजिर' और 'कुछ समझ में नहीं आया' इन शब्दों का उपयोग करना था। लोगों के दिमाग में भी कैसे-कैसे फितूर आते रहते हैं!
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